वो भी दिन थे जब मैं सुबह उठते ही किसी नए शहर की गलियों में छोटा सा कैफे ढूंढती और फिर किसी कोने में जाकर या तो कोई किताब उठाती या फिर टिश्यू पेपर पर अपनी क़लम से कुछ दिल की बातों का बयाँ कर देती।
आजकल समॉं कुछ और ही है, एक महीना होने वाला है मैं हम सबकी तरह घर पर ही हूँ। समय की क़द्र बढ़ रही है और रिश्तों की परीक्षा हो रही है। सुबह का संगीत अब चिड़ियों का चहचहाना है इतना सुकून है सड़कों पर कि शहर में ही नदी के किनारे वाला एहसास है।
फल, सब्ज़ी और राशन की असली क़द्र हो रही है, जब पता चलता है सुपर मार्केट ख़ाली हो रहीं है और जब रवीश कुमार को NDTV पर रात 9 बजे सुनते हैं भुखमरी करोना से ख़तरनाक लगने लगती है।
रोंगटे खड़े होते हैं लोगों का विश्वास टूटते हुए देखकर पर फिर कुछ डॉक्टर नर्स सफाईकर्मी इनके जज़्बे की कहानी सुनकर एक शिक्षक के तौर पर बहुत कुछ सीखने को मिलता है कि जब तक यह जान है अपने कर्म करते जाना है।
2 comments:
Radhasoami ma'am... Good lines.. ��
Wow such a fantastic thought...you are appreciable always.
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